Monday, April 13, 2020

रात में एक बात

शीशे जैसी मृदुल हवा में/ रोशनी के गोल दूधिया छत्र के नीचे/ किन्हीं नामालूम देशों के रंग-बिरंगे झंडे फहराता हुआ/ यह एक पांच सितारा होटल है/ और ये सड़क के कुत्ते हैं/ अलग-अलग चाल ढाल वाले, तादाद में कुल सत्रह/ होटल के सामने, पीठ के बल लेटे/ खुले आकाश में सितारों का मुआयना करते हुए/ मध्य अप्रैल रात ग्यारह बजे की यह अटपटी बात/ अकेली आदमजात को छोड़कर/ बाकी सबके लिए काफी खुशनुमा है।
मैं यहां क्या देखने आया हूं, मुझे नहीं पता/ सिर्फ कुछ गिनतियों से जान छुड़ाने आया हूं शायद/ एक लाख मौतें, सत्रह लाख बीमार/ और कई सारे उनमें/ लाल बत्ती के पीछे दमघोंट कमरे में/ गिनती की कुछेक सांसों के लिए मशीनों की मदद से अपने फेफड़े निचोड़ते हुए/ ‘विचलित कर देने वाली’ उनकी तस्वीरों तक टीवी कैमरा अभी नहीं पहुंच पाया है/ इस एक कमाल के लिए/ मॉडर्न मेडिकल साइंस का मैं दिल से शुक्रगुजार हूं।
यह कैसी सुंदर समता दुनिया में खिल रही है/ कॉमरेड अजित कुमार गुप्ता? समता पर इतना सीरियस होने का मौका अभी आना था? तुम्हारे जाने और अपने हट जाने के इतने साल बाद? डेथ इज़ अ ग्रेट लेवलर- कौन बोला था? शेक्सपीयर? खैर छोड़ो, क्या फर्क पड़ता है/ मरने के बाद सारे एक से हो जाते हैं- क्या वुडी ऐलन, क्या नोम चॉम्स्की, क्या रॉजर पेनरोज/ कुछेक जिंदा भी हों तो क्या/ लाखों के डेटा में दाएं-बाएं चलता है।
कैसी बराबरी दुनिया पर छाई है भाई अजित? गले में फंदा डालने से पहले यह वाकया तुम्हारी नजर से गुजरा होता/ तो उस दोपहर मुस्कुराते हुए कोई घटिया सिनेमा देखने निकल जाते! मेरी खुशकिस्मती कि एक कोई ऐसा सिनेमा मुझे रोज देखने को मिल जाता है/ ज्यादा पुरानी बात नहीं/ गांव के बाजार पर/ कटिंग चाय मारता/ अपने जंवार की नई पीढ़ी का जायजा लेने बैठा था/ कि एक उभरता हुआ लंपट अपनी बहादुरी बखानने लगा।
‘भइया, यही जो गलियरवा आप देख रहे हैं/ ऐन सरस्वती पूजा के दिन इधरै से निकला चला आ रहा था सब, गावत-बजावत/ हम लोग यहीं पे बइठे हैं, और गा क्या रहा है हरामी कि आज रंग है हे मां रंग है री/ बता रहे हैं भइया, चुरकी सटक गई/ यहीं से हूल दिए/ रुक तेरी मां की, धर सारे के मार सारे के/’ मेरी आंखों के सामने सिनेमा शुरू हो चुका था/ फजलू, सत्ते, करीमू के झुंड में लुंगी पकड़े भगे जा रहे खुद अमीर खुसरो!
तो जिंदगी ही कुछ कम ‘लेवलर’ है, जो इस काम के लिए मौत जरूरी हो गई? एक लाख, दो लाख, पांच लाख मौत? 'पानी केरा बुदबुदा असी हमारी जात'...या फिर, 'माटी घोड़ा माटी जोड़ा माटी दी तलवार, वाह-वाह माटी दी गुलजार'/ इसी पानी जैसी, मिट्टी जैसी, हवा जैसी समता के लिए ही हम लड़ रहे थे न? वह तो आज हमें यूं ही उपलब्ध है/ मौत के सत्रहवें दिन शाहदरा नाले से निकाले जाने के बाद कितनी विशिष्टता बची रहेगी कॉमरेड?
हत्ता कि आगे दो तरह की सीनरी पर बातचीत चल रही है/ एक यह कि दुनिया बाएं बाजू झूल गई है/ एक लाख हो कि दस लाख, पर यह एपिसोड समाप्त होने के बाद/ लोग पर्यावरण को लेकर सचेत होंगे/ जिंदगी के मायने उन्हें बेहतर पता होंगे/ लिहाजा मुनाफे की फिक्र छोड़कर कुदरत की लयकारी में जिंदगी चलाएंगे/ अगर ऐसा हुआ तो प्रमोद भाई की ढपली पर मैं भी बेसुरे ढब में गाऊंगा/...'और फिर, प्यार के, गीत गा उठें सभी।'
लेकिन पर्दे के पीछे की जो बातें मुझतक पहुंच रही हैं/ उन्हें सुनकर यही लगता है कि अगला वक्त देह से ज्यादा मन की भुखमरी का है/ दरिंदों को भगवान समझने का, एक जून खाने के लिए किसी की गर्दन उतार लेने का/ इस वक्त में एआई है, रोबोट हैं, आस्था है और लोकप्रिय तानाशाह हैं/ कोई सपना हमारे कहने से नहीं देखता भाई अजित/ न उसकी ताबीर हमारे कहने पर खोजता है/ हम उसका आटा नहीं, सिर्फ खमीर बन सकते हैं।
तो इस रात कहां जाना है? क्या लेट रहूं होटल के सामने, कुत्तों के बीच? इन्हीं की तरह तारों की चाल देख खोज लूं भविष्य की दशा-दिशा? इतने लाख साल हमें ढोकर लाई है यह धरती/ क्या सिर्फ बड़बोले दावों के लिए? कभी दुनिया का नमक, कभी कुदरत का ताज/ पचास साल भी नहीं हुए खुद को धरती के कैंसर की तरह पहचानते हुए/ और यह ‘हम’ भी कितना हम है/ जब सिर्फ एक वायरस हमें धरती पर एक समान मानता है!

Thursday, March 19, 2020

नया नीतिशास्त्र

विनर और लूजर की बात मुझसे मत करो
यह नीतिशास्त्र मेरी समझ से बाहर है
लूजर होना मेरे लिए अक्सर इंसान होना है
दुनिया बहुत जटिल है पर इतनी भी नहीं
कि किसी का भी जीतना अच्छा मान लिया जाए
कोई जीतता है तो किसी का घर उजड़ता है
यह तुम अपना घर उजड़े बगैर भी जान सकते हो
बुरे आदमी की जीत और अच्छे की हार
इस चमत्कारिक दौर की पहचान हो सकती है
इसके होने से कहानियां रसीली बनती हैं
और हकीकत के इतने करीब लगती हैं कि
देखने वाला खुद को सयाना समझने लगता है,
भले ही इसकी कुल तासीर पैसे देकर
लात खाने का इंतजाम करने की क्यों न हो
इस सौंदर्यशास्त्र में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है,
हालांकि मेरे गुस्से को यहां आराम मिलता है
बाहर बदलाव अगर इतना तेज हो कि
कुछ भी होना या न होना तुम्हारी मर्जी से परे हो
तो अच्छे का इंतजार मन पर भारी पड़ने लगता है
जोर की प्यास लगने पर कोई जहर तो नहीं पी लेता,
लेकिन समाज किसी अकेले की तरह कहां सोचता है?
दुख से ज्यादा इस समाज से मेरा गुस्से का साझा है
तुम आज एक हत्यारे को राज करते देख रहे हो
मै बचपन से अलग-अलग स्तरों पर यही देख रहा हूं
बहरहाल, हत्यारे की शक्ल कितनी भी चमक जाए
मेरी श्रद्धा उसमें नहीं जगती, माथा नहीं झुकता
हमारे सारे देवी-देवता शस्त्रधारी परम विजेता हैं
पर वे हमें लूजर ही बनाते हैं तो उनका मैं क्या करूं?